कोई लाख चतुराई करें,पर कर्मो का लेखा नहीं मिटता : मुनि संभव सागर

nspnews 15-04-2023 Regional

नरसिंहपुर। पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर कंदेली में ग्रीष्मकालीन वाचना के चलते निर्यापक श्रमण पूज्य मुनि श्री संभव सागर जी ने प्रवचन में श्रावक गणों को आशीष वचन में कहा कि आप सभी धर्म का स्वरूप को समझने बैठे है, प्रत्येक व्यक्ति को बिना सिखाये यह समझ आती है कि माता-पिता की संपदा हमारी संपदा है, जिस पर उसका जन्म सिद्ध अधिकार है, ऐसा प्रत्येक मानव मानकर चलता है, धर्म की अच्छाई को कोई नहीं अपनाता है, उन्हें सीखाना पडता है, पाँच पापों में जीव अनादि काल से लीन है, उक्त पाप अपने आप बडे होते तक भावों के कारण,प्रकृतिक कारण परिसर-क्षेत्र के प्रभाव से इन पाँचों पापों की ओर आकृर्षित होने लगते है। वैज्ञानिक इस विषय पर खोज कर रहे है, आखिर ये कैसे संभव है, जैन धर्म में चार संज्ञा बताई गई  है आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा इन में से आहार संज्ञा,भय संज्ञा का बीजारोपण माता-पिता कराते है,जैसे भय का बोध परिवार जन सीखाते है,माँ ने लाल अंगारा छूने से बालक को मना किया,फिर भी बच्चे ने माँ का दूसरी ओर ध्यान जाने पर लाल अंगारे को छू लिया ओर हाथ जल गया, वह जीवन में दुबारा लाल अंगारे को नहीं छूता है, ऐसा ही गर्म दूध पीने से भी डरता है, कहावत प्रचलन में है कि *दूध का जला छाछ फूंक-फूंक कर पीता है* इसी प्रकार आहार संज्ञा भी सीख लेता है, किशोरावस्था में कदम बढते ही कुछ प्रवृत्तियाँ जाग्रत होने लगती है, जिसमें मैथुन संज्ञा इस प्रकार सीख लेता है  इसके लिये कोई शिक्षा देने की आवश्यकता या जिन्हें सीखाने की जरूरत नहीं पडती है, महाराज जी ने कहा कि परिग्रह संज्ञा संसार के प्रत्येक जीव -प्राणी में होती है, जैसे बच्चों को पैसा, चाकलेट, पेंसिल, दो तो हमेशा ले लेते है,यह प्रवृति एक इंद्रिय जीव वनस्पति से लेकर से पंचेन्द्रीय जीवों में पाई जाती है, लाजवंती वनस्पति में भय संज्ञा होती है, वनस्पति में 20वीं सदी में जीवन होना विज्ञान ने स्वीकारा था, जबकि जैन शास्त्र पुरातन से यह कहता आ रहा है कि एक इंद्रिय जीव में स्पर्श इन्द्रिय से सब कार्य करता है, भारतीय संस्कृति अनेक मत-मतांतर से निर्मित हुई है, दुनिया का निर्माण पाँच मूल-भूत तत्वों से हुआ है, जिसमें पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि, जल, वनस्पति। मानव स्वयं के कर्मों से ही विकास व ह्रास स्वयं करता है। जैन धर्म के मूल-भूत  सिध्दांत  अहिंसा है, इसलिये पाँच कायक का कम से कम जीवन में उपयोग व उपभोग करना चाहिए, जीव का मन सबसे महत्वपूर्ण है, इस मन के कारण पंचेन्द्रीय जीव स्वच्छंद हो गया है, मानसिक  विकलांग व्यक्ति के पास मन तो होता है, परंतु  उसका मानसिक विकास नहीं होता है या धीरे-धीरे होता है, कार्य के संयोजन में मन ही सर्वोत्कृष्ट है, मन संसार का कारक व मोक्ष मार्ग प्रशस्त करा सकता है, मन ही हर तरह के कार्य को निष्पादित करने में सर्वोत्कृष्ट कार्य करता है, मन शून्य पर स्थित है, यह धनात्मक की ओर बढते है तो पाजेटिव शुभ होता है, ओर ऋणात्मक की ओर बढता है तो निगेटिव अशुभ होता है, इसी प्रकार मानव शरीर में आत्मा का भी संचारण होता रहता है, मनुष्य चाहता तो अच्छा-अच्छा है, परंतु करता बुरा-बुरा है, *बोया बबूल तो आम कहा से होये * जैन धर्म ईश्वर कृत्यातत्व वाद का विरोध  करता है अर्थात भगवान कुछ नहीं करता है, जो भी होता है जीव के स्वयं के कर्मों से होता है, मनुष्य अपने कर्मो का लेखा-जोखा नहीं करता है, परंतु कारोबार का लेखा-जोखा अवश्य रखता है, इसके लिये सीए, मुनीम आदि लगाकर रखता है, अच्छा व्यापारी वहीं जो अपना लेखा-जोखा रखता है, परंतु जीव अपने कर्मों का लेखा-जोखा नहीं रखता है, मन का बही खाते चोर होता है, जो कि कर्मो की कलम ऊपर-नीचे करता रहता है। *कोई लाख चतुराई करें,पर कर्मो का लेखा नहीं मिटता भाई।

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